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अपने 20+ साल के करियर में, मैंने बुनकरों
के साथ इतना उचित और सम्मानपूर्ण व्यवहार नहीं देखा है। श्रमदान इस गिरते हुए क्षेत्र में
कारीगरों, किसानों और मजदूरों के सम्मान को वापस लाकर
सही दिशा में बदलाव की एक नई उम्मीद है।
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शुरुआत में,
मैं विश्वास नहीं कर सकती थी कि जो कपड़ा मेरे हाथ में था वह एक नौजवान द्वारा बनाया गया था, जिसने
कुंडलपुर में सिर्फ डेढ़ महीने का प्रशिक्षण लिया और आगे यह कि उनकी
हथकरघा कार्य में कोई विरासत नहीं थी।
यह उन ग्रामीण लोगों के लिए आशा की नई किरण है जो
सिर्फ कृषि और घटती श्रम नौकरियों पर निर्भर हैं।
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मुझे
दिसंबर 2017 में डोंगरगढ़ के हथकरघा केंद्र में जाने का सौभाग्य मिला था। आचार्य श्री का जमीनी स्तर पर एक
इको-सिस्टम के माध्यम से गरीबों के उत्थान का दृष्टिकोण व्यक्तिगत रूप से आकार लेते हुए देखने का अनुभव बिल्कुल अद्भुत और रोमांचकारी है
। पड़ोसी गांवों के नवोदित कारीगर, ज्यादातर आदिवासी केंद्र में प्रशिक्षित हो रहे थे। उत्पादित होने वाले
कपड़ों की गुणवत्ता और जटिल डिजाइनों ने मुझे अचंभित कर दिया।
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मेरे विचार से हथकरघा एक उद्योग नहीं एक सादे सच्चे जीवन का मूलमंत्र
है। भारतीय लोगों को रोजगार
और अहिंसा का पालन, शारारिक श्रम और उचित
मूल्य साथ साथ गुरु के आज्ञा के पालन से मिलने वाला सोभाग्य तो उस सादे जीवन मंदिर
का स्वर्ण कलश है।